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प्रेम

श्रीमद भगवत कथा में श्री कृष्ण स्वयं प्रेम के विषय में कहते हुए :-

जो प्रेम करने पर प्रेम करता है उसका तो सारा उद्योग (मेहनत) स्वार्थ को लेकर है | लेना देना मात्र है | तो उन लोगों में सौहाद्र है और तो धर्म |उनका प्रेम तो केवल स्वार्थ के लिए ही है ; इसके अतिरिक्त उनका कोई प्रयोजन नहीं है |

जो लोग प्रेम करने वाले से भी प्रेम करते हैं- जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता पिता - उनका ह्रदय स्वभाव से ही सौहाद्र से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्चल सत्य और पूर्ण धर्म भी है |

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते , प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है | ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं :
  1. पहले वे हैं जो अपने स्वरुप में मस्त रहते हैं - जिनकी दृष्टी में कभी द्वेत भासता ही नहीं |
  2. दूसरे वे, जिन्हें द्वेत तो भासता है, परंतू जो कृत-कृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजान नहीं है |
  3. तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं की हमसे कौन प्रेम करता है |
  4. और चौथे वे हैं, जो जानबूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु तुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं |

आगे श्री कृष्ण गोपियों से कहतेहैं :-

मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा की करना चाहिए | मैं ऐसा केवल इसीलिए करता हूँ की उनकी चित्त वृत्ति और भी मुझमे लगे, निरंतर लगी ही रहे| जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत सा धन मिल जाये और फिर खो जाये तो उसका ह्रदय खोये हुए धन की चिंता से भर जाता है , ऐसे ही मैं भी अपने प्रेमियों से मिल मिलकर छिप छिप जाता हूँ |

इसमें संदेह नहीं है की तुम लोगों ने मेरे लिए लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है| ऐसी स्तिथि में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं जाये, अपने सौंदर्य और सुहाग की चिंता करने लगे, मुझमे ही लगी रहे- इसीलिए परोक्ष रूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं छुप जाता हूँ | इसीलिए तुम लोग मेरे प्रेम में दोष निकालो | तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ |

तुमने मेरे लिए घर गृहस्ती की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते| मुझसे तुम्हारा ये मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है| यदि मैं अमर शरीर से-अमर जीवन से अंनत काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चूका सकता | मैं जनम जन्मों तक तुम्हारा ऋणी हूँ | तुम आपने सौम्य स्वभाव से, प्रेम से मुझे ऋण (ऋण मुक्त) कर सकती हो परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही रहूँगा ||



|| राधे कृष्ण ||

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